एक कविता माँ को....कलम रो पड़ी
माँ काश मैं आज स्कूल ना जाता..,
शायद तुम्हे फिर से देख पाता..!
तेरी आवाज सुनने को कान तरस रहे है...
देखो ना माँ बारूदो के गोले बरस रहे है..!!
सारे बच्चे अपनी अपनी माँ को पुकार रहे है..
माँ ये लोग हमें क्यू मार रहे है..!!
टिफिन में दी तुम्हारी रोटी भी नहीं खायी है..
माँ आज गोलियों ने मेरी भूख मिटाई है..!!
पापा से कहना अब मुझे स्कूल लेने ना आये...
देख नही पाऊंगा उन्हें मेरा जनाजा उठाये...!!
मेरे जाने से अपना होसला मत खोना..
माँ मुझसे बिछड़ कर तुम मत रोना..!!
मेरे खिलोने,मेरी किताबे,मेरा बस्ता,
जानता हु तेरी आँखे देखती रहेगी रोज मेरा रस्ता..!!
भैया से कहना उसका साथी रूठ गया है..
बचपन का हमारा साथ छुट गया हैं..!!
अप्पी से कहना मेरे लिए आंसू ना बहाए..
रोज़ मेरी तस्वीर को छोटा सा फूल चढ़ाये..!!
तेरी यादो में,ख्वाबों में,जिक्र में रह जाऊंगा..
माँ मैं अब कभी वापस नहीं आऊंगा..
माँ मैं अब कभी वापस नहीं आऊंगा..!!

महात्मा गाँधी के ऊपर शायद हिंदी में सबसे अधिक कविताएँ लिखी गई हैं. महात्मा गाँधी के जन्मदिन के मौके पर प्रस्तुत हैं रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी गई कुछ कविताएँ- जानकी पुल.

गांधी
(१)
तू सहज शान्ति का दूत, मनुज के
सहज प्रेम का अधिकारी,
दृग में उंडेल कर सहज शील
देखती तुझे दुनिया सारी.
धरती की छाती से अजस्र
चिरसंचित क्षीर उमड़ता है,
आँखों में भर कर सुधा तुझे
यह अम्बर देखा करता है.
कोई न भीत, कोई न त्रस्त,
सब ओर प्रकृति है प्रेम भरी.
निश्चिन्त जुगाली करती है
छाया में पास खड़ी बकरी.
(२)
क्या हार-जीत खोजे कोई
उस अद्भुत पुरुष अहंता की,
हो जिसकी संगर-भूमि बिछी
गोदी में जगन्नियन्ता की?
संगर की अद्भुत भूमि, जहाँ
पड़ने वाला प्रत्येक कदम-
है विजय; पराजय भी जिसकी
होती न प्रार्थनाओं से कम.
संगर की अद्भुत भूमि,
नहीं कुछ दाह, न कोई कोलाहल,
चल रहा समर सबसे महान,
पर, कहीं नहीं कुछ भी हलचल.
(३)
तू चला, लोग कुछ चौंक पड़े,
“तूफान उठा या आंधी है?”
ईसा की बोली रूह, अरे,
यह तो बेचारा गाँधी है.
(४)
चाहता प्रेमरस पाना तो
हिम्मत कर, बढ़कर बलि हो जा.
मत सोच मिलेगा क्या पीछे,
पहले तो आप स्वयं खो जा.
है प्रेम-लोक का नियम सहन कर
जो बीते, कुछ बोल नहीं;
हैं पांव खड्ग की धारा पर,
चल बंधी चाल में, डोल नहीं.
(५)
प्रेमी की यह पहचान, परुषता
को न जीभ पर लाते हैं,
दुनिया देती है ज़हर, किंतु,
वे सुधा छिड़कते जाते हैं.
(६)
चालीस कोटि के पिता चले,
चालीस कोटि के प्राण चले;
चालीस कोटि हतभागों की
आशा, भुजबल, अभिमान चले.
यह रूह देश की चली, अरे,
माँ की आँखों का नूर चला;
दौड़ो, दौड़ो, तज हमें
हमारा बापू हमसे दूर चला.
रोको, रोको, नगराज, पंथ,
भारतमाता चिल्लाती है,
है जुल्म! देश को छोड़ देश की
किस्मत भागी जाती है.
(७)
गाँधी अगर जीत कर निकले, जलधारा बरसेगी,
हारे, तो तूफान इसी उमस से फूट पडेगा.
(८)
ना, गांधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लौह्मय क्षत्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से.
(९)
देख रहे हो, गाँधी पर
कैसी विपत्ति आई है?
तन तो उसका गया, नहीं क्या
मन भी शेष बचेगा?